किसान और फ़िल्म निर्देशक लक्ष्मीनारायण देवड़ा मुक्ता पाटील से बातचीत करते हुए बताते है कि उनकी दादी ज्वार कैसे बनाती थी, अच्छी फिल्मों का बोली और बेझिझक होने से क्या रिश्ता हैं, और ज्वार का पॉपकॉर्न लोगों को कैसे एकजुट करता है।
ज्वार गाथा किसान और फिल्ममेकर लक्ष्मीनारायण देवड़ा द्वारा निर्मित निमाड़ी भाषा फिल्म है। मध्य प्रदेश के छोटे-छोटे क्षेत्रों में अब भी ज्वार की कई स्थानिक प्रजातियां उगाई जाती हैं। यह फिल्म उन लोगों की कहानियाँ बताती है जो कई समस्याओं के बावजूत ज्वार की खेती कर रहे है। ज्वार गाथा इस अनाज का, और इससे जुडी ज़िन्दगियों का जश्न मनाता हैं, भले ही इन सूखे क्षेत्रों में उसकी मात्रा कम हो रही हो।
लक्ष्मीनारायण मध्य प्रदेश के देवास जिले के छोटे से गाँव पांडुतलाब में पले-बढ़े। वह एक किसान परिवार से आते है और बताते है कि पिछले दो दशकों में यहाँ बहुत कुछ बदल गया है। पहले अनेक प्रकार की फसलें बोई जाती थी—जैसे बाजरा, ज्वार, भादली। इनके साथ देसी कपास और मकई भी होते थे, और दालों में मूंग,अरहद, उड़द। सब्जियों में भी बहुत विविधता थी—बैंगन, लौकी, गवार, भिंडी, कद्दू , लगभग जितनी सब्जियां होती थी, उनके बीज घर के बीज थे। लेकिन अब किसान मार्केट में मिलने वाले हाइब्रिड बीज उगाने लगे है। उर्वरक और कीटनाशकों का इस्तेमाल भी बढ़ गया हैं।
२००५ में लक्ष्मीनारायण शोभित जैन और पिंकी ब्रह्म चौधरी के साथ काम करने लगे। पिंकी और शोभित ने २००८ में समाज प्रगति सहायोग नामक संस्था की कम्युनिटी मीडिया विंग शुरू की, जिसके अंतर्गत वे संस्था के काम के बारे में फिल्में बनाते हैं। समाज प्रगति सहायोग भारत के ७२ सबसे पिछड़े जिलों में, प्रमुखता से मध्य भारतीय आदिवासी बेल्ट में, जल और आजीविका सुरक्षा पर काम करते हैं । २००५ और २००८ के बीच पिंकी और शोभित के साथ काम करने के दौरान लक्ष्मीनारायण ध्वनि और कैमरा करना सीख गए। इसी वक़्त उन्होंने लोगों के मौखिक इतिहास को समझना और इकठ्ठा करना भी सीखा।
ज्वार गाथा में दिखाए गए गानों, खाने की पद्धतियों, तकलीफों और प्रथाओं को इकट्ठा करने और ये कहानी बताने में लक्ष्मीनारायण और उनकी टीम ने तीन साल गुज़ारे हैं।
हमारी बातचीत के कुछ अंश यहाँ पढ़े:
आपने ‘ज्वार गाथा’ को एक उत्सव की तरह प्रस्तुत किया है, लेकिन इसमें ज्वार की खेती से संबंधित काफी कठिनाइयाँ भी दिखती हैं। इन दोनों को आप एक साथ कैसे ले आए? असल कहानी ढूंढ़ने के लिए किस तरह के सवाल पूछने चाहिए?
सब से पहले तो, जिनकी कहानी है, उन लोगों से बहुत जुड़ाव चाहिए।अगर हम किसी से उनकी कहानी जानना चाहे तो एक अपनेपन का भाव होना ज़रूरी है। उनको ये महसूस नहीं होना चाहिए कि ये अलग जगह से आता है, एक लेवल अलग है।मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि पहले उन्हें समझना चाहिए — कि वो किस तरह के व्यक्ति है, उनकी ज़िन्दगी कैसी है । जल्दबाज़ी में कहानी पूछे तो शायद वो क्या बता जायेंगे और हम क्या समझ जायेंगे । जब तक उनके परिवार का सदस्य नहीं बन पाए, तब तक असल कहानी नहीं निकल पाती है।
उनकी अपनी बोली में बातचीत करना, और उनकी भी सुनना, ना कि अपने हिसाब से सारे सवाल पूछते रहना। सुनने की भी क्षमता होनी चाहिए। हम सिर्फ सवाल पूछे तो जवाब ही मिलता जायेगा, जो मूल कहानी है वो शायद हम नहीं समझ पाएंगे। बहुत शांति के साथ, मौके का इंतज़ार होना चाहिए—किस जगह पे कौन सी बात हमे पूछनी चाहिए। इतना तो रुकना चाहिए।
जल्दबाज़ी में कहानी पूछे तो शायद वो क्या बता जायेंगे और हम क्या समझ जायेंगे । जब तक उनके परिवार का सदस्य नहीं बन पाए, तब तक असल कहानी नहीं निकल पाती है।
इस फिल्म में ज्वार अलग-अलग तरह से पकाया गया है—पॉपकॉर्न, रोटी, दलिया।उसके बारे में बताएंगे? और आप कैसे खाना पसंद करते है?
ज्वार के साथ नॉन वेज का काफी सम्बन्ध है—मछली हो या चिकन या मटन। और यहाँ जो जंगली सब्जियां उगती हैं (बारिश में अलग, गर्मी और ठंड में अलग), उनके साग के साथ ज्वार का बहुत गहरा सम्बन्ध है। ज्यादातर ज्वार की रोटी के साथ सूप चाहिए होता है, तो रसीली सब्जी बनाने की प्रथा है। और इसका पॉपकॉर्न तो काफी मज़ेदार होता है।
ज्वार का दलिया भी बनता है, ख़ास करके अगर किसीकी तबियत ख़राब हो, जैसे बुखार या सर दर्द हो। अगर घी नहीं हो तो तेल के साथ दलिया को तल लो, और पानी डाल के पेज जैसा बना दो। महिलाएं जब जन्म देती हैं तब भी ये दलिया खाया जाता है।
इसका दाना जब हरा होता है, पकने से पहले, उसको आग पे भून लिया जाता है, और इसे तिल के साथ खाओ तो एक अलग ही स्वाद है। जब हम फिल्मिंग कर रहे थे, मुझे ये काफी चीज़ें याद आई जो मेरी दादी बनाती थी। वो ज्वार के भुट्टे को कपडे में सेक लेती थी, और फिर लकड़ी से पीटती थी, तब दाने सारे झड़ जाते थे। फिर तिल को भूनती थी और मिक्स करके मुझे देती थी, अक्सर ये हमारा लंच होता था।
हरे दाने तो अब नहीं मिलते, लेकिन हमारे घर में अभी भी ज्वार की रोटी तो बनती ही बनती है। बच्चों को, बीवी को, सभी को पसंद है। कुछ साल पहले गेहू ख़ास लगता था, कि मज़ा आ जायेगा खाने में, पर अब ज्वार बने तो विशेष माना जाता है।
आप ‘ज्वार गाथा’ को लेकर अब काफी जगह घूमे हैं। ये अनुभव कैसे रहे, आपकी इनसे जुड़ी कुछ यादें होंगी?
मैं इस फिल्म को लेके ज्यादातर गाओं में घुमा हूँ। जैसे तीवङिया, सीतापुरी, निमाड़। जब फिल्म चल रही थी तो कई बार, जैसे कोई उत्सव हो, लोग उठ के नाचने और गाने लगे हैं। जब पॉपकॉर्न का सीन आता है तो कहते है, “प्लेट लेके आओ, पॉपकॉर्न खाएंगे!” लोग ज्वार के बारे में और कई कहानियां सुनाते है, तब मुझे लगता है कितनी चीज़ें हम मिस कर गए।
गोवा में किसीने देखने के बाद कहा, “मैं सोच रहा था, ज्वार पे कैसे फिल्म बन सकती है? ये तो सिर्फ एक पौधा है, इस पे क्या ही फिल्म बनेगी, बोरिंग ही होगी।” लेकिन उन्हें बहुत पसंद आई, उन्होंने कहा, “दिल छू लिया।”
केरल में भी लोगों ने बहुत प्रशंसा की। हमें लगा चलो हमारी फिल्म तो काम कर गयी, हमने गांव के लिए बनाई थी, ये तो शहरों में भी लोगों को पसंद आ रही है।
जब फिल्म चल रही थी तो कई बार, जैसे कोई उत्सव हो, लोग उठ के नाचने और गाने लगे हैं। जब पॉपकॉर्न का सीन आता है तो कहते है, “प्लेट लेके आओ, पॉपकॉर्न खाएंगे!”
‘ज्वार गाथा’ की शुरुआत एक लोक-गीत से होती है, जिसमें ज्वार माता हम से रूठ गई है:
“कहा जाता है
जब ज्वार माता का अपमान हुआ
तो वह रूठ कर छिप गई
कभी रहिगाव की जड़ में
तो कभी साल की छाल में
छुपती रही
घबराकर राजा ने ज्वार माता
को मनाते हुए विनती की
अगर तुम वापस नहीं आई
तो हमारा वंश समाप्त हो जायेगा।”
आप हमें इस गीत के बारे में और बता सकते है?
महाराष्ट्र और गुजरात की सीमा पे हमारी एक बाबा से मुलाक़ात हुई। अब तो वह गुज़र गए, पर उन्हें आयुर्वेद और जड़ीबूटियों की काफी जानकारी थी । उस इलाके में हमने ज्वार की खेती देखी, तो शूट करते करते हम उन तक पहुंच गए। बातों-बातों में इस गीत की कहानी उन्होंने सुनाई—पुरानी बात है, एक बार जब लोग ज्वार माता को छेड़ रहे थे, उनका सम्मान नहीं किया, तो वह रूठ गयी। नाराज़ होके अलग-अलग जगहों में छुप गयी। जैसे दोंगला, जो एक तरह का घास होता है, उस में। साल के पेड़ में , बेर के फल में। उन्होंने कहाँ, “मैं अब यहाँ से चली जाती हूँ।” तब राजा ने कहाँ, “आप चली जाएँगी तो संसार का क्या होगा? हमारा पेट कैसे भरेगा?” इस तरह उन्हें मनाके, वो ज्वार माता को वापस ले आये।
ज्वार की यही खासियत है, ये हमारे स्वास्थ्य के लिए है ही बेहतर, लेकिन इसकी घास गाय और बैलों के लिए भी बहुत पौष्टिक है। और पर्यावरण के लिए भी अनुकूल है। अगर हम ज्वार माता को वापस ले आए, तो सब का भला ही होगा।
‘ज्वार गाथा’ का कौनसा दृश्य आपको सबसे ज्यादा पसंद है ?
जो हमने अलग-अलग ज्वार के शॉट्स लिए है, उसकी विविधता दिखाने के लिए, वो मुझे बहुत पसंद है। अभी भी मैं आँखें बंद करता हूँ तो मुझे लगता है कि मैं ज्वार की आत्मा को देख रहा हूँ । जो ७-८ प्रकार हमने दिखाए है, हर एक की जो अनोखी सुंदरता है , वो हमेशा मेरे दिल को छू जाती है।
Mukta Patil heads the Editorial Lab at the Millet Revival Project. She is a writer and editor who works on stories that spotlight the intricacies of our food systems, and how they interact with the climate emergency, the environment, and people.
Read the interview in English here.
This article is part of the Millet Revival Project 2023, The Locavore’s modest attempt to demystify cooking with millets, and learn the impact that it has on our ecology. This initiative, in association with Rainmatter Foundation, aims to facilitate the gradual incorporation of millets into our diets, as well as create a space for meaningful conversation and engagement so that we can tap into the resilience of millets while also rediscovering its taste.
Rainmatter Foundation is a non-profit organisation that supports organisations and projects for climate action, a healthier environment, and livelihoods associated with them. The foundation and The Locavore have co-created this Millet Revival Project for a millet-climate outreach campaign for urban consumers. To learn more about the foundation and the other organisations they support, click here.